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उ॒त न॑ ईं म॒तयोऽश्व॑योगा॒: शिशुं॒ न गाव॒स्तरु॑णं रिहन्ति। तमीं॒ गिरो॒ जन॑यो॒ न पत्नी॑: सुर॒भिष्ट॑मं न॒रां न॑सन्त ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta na īm matayo śvayogāḥ śiśuṁ na gāvas taruṇaṁ rihanti | tam īṁ giro janayo na patnīḥ surabhiṣṭamaṁ narāṁ nasanta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। नः॒। ई॒म्। म॒तयः॑। अश्व॑ऽयोगाः। शिशु॑म्। न। गावः॑। तरु॑णम्। रि॒ह॒न्ति॒। तम्। ई॒म्। गिरः॑। जन॑यः। न। पत्नीः॑। सु॒र॒भिःऽत॑मम्। न॒राम्। न॒स॒न्त॒ ॥ १.१८६.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:186» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर और दृष्टान्त से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अश्वयोगाः) अश्वयोग अर्थात् अश्वों का योग कराते हैं वे (मतयः) मनुष्य (तरुणम्) तरुण (शिशुम्) बछड़ों को (न) जैसे (गावः) गौयें वैसे (नः) हम लोगों को (ईम्) सब ओर से (रिहन्ति) प्राप्त होते हैं, जिस (नराम्) मनुष्यों के बीच (सुरभिष्टमम्) अतिशय करके सुगन्धित सुन्दर कीर्त्तिमान् को (जनयः) उत्पत्ति करानेवाले जन (पत्नीः) अपनी पत्नियों को जैसे (न) वैसे (नसन्त) प्राप्त होवें वह (ईम्) सब ओर से (गिरः) वाणियों को प्राप्त होता है (तम्) उसको (उत) ही हम लोग सेवें ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे घुड़चढ़ा शीघ्र एकस्थान से दूसरे स्थान को वा जे गौयें बछड़ों को वा स्त्रीव्रत जन अपनी अपनी पत्नियों को प्राप्त होते हैं, वैसे विद्वान् जन विद्या और श्रेष्ठ विद्वानों की वाणियों को प्राप्त होते हैं ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्दृष्टान्तरेण विद्वद्विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या येऽश्वयोगा मतयस्तरुणं शिशुं गावो न नोऽस्मानीम्रिहन्ति यं नरां मध्ये सुरभिष्टमं जनयः पत्नीर्न नसन्त स ईं गिरः प्राप्नोति तमुतापि वयं सेवेमहि ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) (नः) अस्मान् (ईम्) (मतयः) मनुष्याः (अश्वयोगाः) येऽश्वान्योजयन्ति ते (शिशुम्) वत्सम् (न) इव (गावः) (तरुणम्) युवावस्थास्थम् (रिहन्ति) प्राप्नुवन्ति (तम्) (ईम्) सर्वतः (गिरः) वाणीः (जनयः) जनयितारः (न) इव (पत्नीः) दारान् (सुरभिष्टमम्) अतिशयेन सुरभिः सुगन्धिस्तम् (नराम्) मनुष्याणाम् (नसन्त) प्राप्नुवन्तु। नस इति गतिकर्मा०। निघं० २। १४। ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - यथाऽश्वारूढाः सद्यः स्थानान्तरं यथा वा गावो वत्सान् यथा वा स्त्रीव्रताः स्वपत्नीश्च प्राप्नुवन्ति तथा विद्वांसो विद्याप्तवाचो यान्ति ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा घोडेस्वार एका स्थानापासून दुसऱ्या स्थानी जातो किंवा जशा गाई आपल्या वासरांबरोबर असतात किंवा स्त्रीव्रती पुरुष आपापल्या पत्नीसोबत राहतात तसे विद्वान लोकांना विद्या व श्रेष्ठ विद्वानांची वाणी प्राप्त होते. ॥ ७ ॥